भला-पूरा पागल हूँ मैं
गिरा-संभला आँचल हूँ मैं
जो ढलका कभी तो जमीं से जुड़ गया मैं
जो उड़ा कभी तो हवाओं में घुल गया मैं
क्या हुआ जो सर से थोडा सरक गया मैं
पागल हवाओ को पहले परख गया मैं
कोई जख्म तो तेरे जिस्म पर नहीं दे गया मैं
मुहब्बत की बादलो से तो बारिशो में बह गया मैं
तेरी तू सोच मुझे अपने हाल पर छोड़ दे
दामन को मेरे अपने काँधे से तोड़ दे
कर कोशिश अपने पैरो को ज़माने की ज़रा
आसमान तक उड़ने में जमीं को न छोड़ दे
में तो हूँ परिंदा ‘ठाकुर’,उड़ता ही चला जाऊंगा
तू देख कोई काफ़िर तेरा घरोंदा न तोड़ दे
3 responses to “रूह का आँचल”
merko ye kavita samajh nahi aayi…
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Read one more time… and feel it:)
I wish next time…i will write something that you’ll get in one shot !!!
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little snail
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