सरस्वती माँ और लाल गुलाब


ये उसका हमेशा का नियम था, परीक्षा वाले दिन स्कूल के रस्ते में आने वाले पीपल के पेड़ के नीचे एक गुलाब रख देती थी | उसकी माँ ने बचपन में उसे ऐसे ही कह दिया था कि इस पीपल के पेड़ के नीचे सरस्वती माँ विराजमान हैं | बाल-मन ने उसे सत्य मान लिया और तभी से पीपल के पेड़ के नीचे रखा पत्थर उसके लिए सरस्वती माँ हो गया | हर साल परीक्षा वाले दिन एक गुलाब उस पत्थर पर रख देती और उसका परचा हमेशा अच्छा जाता | अब इसे विश्वास कहे या अन्धविश्वास, पर उसे यकीन था कि सरस्वती माँ की कृपा से एक दिन वो भी पढ़-लिखकर शिक्षक बनेगी, और ऐसे ही किसी स्कूल में बच्चो को पढ़ायेगी |

उस दिन उसका आठवी कक्षा का आखिरी परचा था | अंग्रेजी विषय से वैसे तो उसे थोडा डर लगता था, पर उसे यकीन था कि सरस्वती माँ की कृपा से इस विषय का परचा भी अच्छा ही जायेगा | हमेशा की तरह हाथो में स्केल, पेन और एक लाल गुलाब लेकर वो स्कूल के लिए निकल गयी | पीपल के पेड़ के नीचे जैसे ही कदम पहुचे तो देखा सरस्वती माँ वाला पत्थर अपने स्थान से गायब था | उसने वहा काम कर रहे मजदूरों से पूछा तो उन्होंने बताया सड़क का काम चालू हैं, तो हो सकता हैं किसी ने उठा के फेक दिया हो | मन आशंकाओ से घिर गया, अब सरस्वती माँ के बिना परचा कैसा जायेगा | फिर भी उसने मन को तसल्ली दी और गुलाब पेड़ के नीचे ऐसे ही रखकर आ गयी | उस दिन का परचा वाकई में कठीन था, पर सरस्वती माँ की कृपा से उसे सब कुछ आता था | पूरे मनोयोग से वो उत्तर लिखने में लग गयी |

अभी पर्चा शुरू हुए एक घंटा ही हुआ था, कि उसके बापू कक्षा में आ गए और उसे परचा अधुरा ही छोड़कर वहाँ से ले जाने लगे | उसने थोड़ी जिद्द की तो बापू जबरजस्ती उसे खीचकर वहां से ले गए | घर पहुचने पर माँ ने उसे समझा-बुझाकर कुछ मेहमानों के सामने बैठा दिया | वो कुछ समझ पाती कि ये सब क्या माजरा हैं, उससे पहले ही घर में शहनाइया बजने लगी | सात दिनों बाद उसकी शादी हो गयी, और माँ-बाप ने डोली में बैठाकर उसे विदा कर दिया | डोली पीपल के पेड़ के पास पहुची तो उसने पर्दा खोलकर बाहर देखा, सोचा आखिरी बार सरस्वती माँ के दर्शन कर लिए जाये | बाहर थोड़ी तेज़ हवा चल रही थी, और कुछ मजदूर पीपल के पेड़ को काटने में लगे हुए थे | वहाँ खड़े लोगो की बातो से उसे पता चला कि सड़क चोडी करने के लिए पीपल का पेड़ काटा जा रहा हैं | दुखी मन से उसने आखिरी बार हाथ जोड़कर सरस्वती माँ को याद कर लिया | वो मेहंदी वाले हाथो से सरस्वती माँ को प्रणाम ही कर रही थी, कि हवा से पेड़ के नीचे पड़ा एक सूखा गुलाब उड़कर उसके हाथो में आ गया | हाथो में वो गुलाब लिए वो फिर डोली में आकर बैठ गयी | यकीनन वो गुलाब उसका नहीं था पर उसे उसमे अपना ही अक्स दिख रहा था – सूखा, मुरझाया, कुचला… पर मासूम और मनमोहक भी |

– अंकित सोलंकी
२८ जुलाई २०१३, उज्जैन (म.प्र.)

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