मुसाफिर


आसरा मिला मुझे तो आसमानों से
मुसाफिरों को क्या मोहब्बत मकानों से !

आ जायेंगे हम तेरे एक बुलाने से
कि नाराज ना हो हमारे चले जाने से !

बचपन से ही रहते हैं हम दीवानों से
आजाद, बेखबर दुनियादारी के ख्यालो से !

जो मिला नहीं हमें इस शहर की दुकानों से
वो पाया हैं हमने इन रास्तो के मुकामो से !

आवाज़ आती हैं मंदिर, मस्जिद और मयखानों से
कि होती हैं इबादत भी हुनर के आजमाने से !

‘ठाकुर’ सुना हैं हमने ये अपने कानो से
कि लिखते हो तुम भी ग़ज़ल मस्तानो से !

सुनाते रहना यु ही अपनी दास्ताँ अल्फाजो से
कि ढूंडेंगी दुनिया एक दिन तुम्हे तुम्हारे निशानों से !

2 responses to “मुसाफिर”

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: