रात


हर रात रूआसा कर जाती हैं
आसुओं का काम आसां कर जाती हैं

अखरती हैं अंगड़ाई कुछ इस कदर कि
नरम शैया भी डोलती नैय्या बन जाती हैं

ज़िन्दगी के बिस्तर पर किसी की कमी खल जाती हैं
जब अपनी आह किसी की आहट को तरस जाती हैं

और इस बात पर तबियत और बिगड़ जाती हैं
जब पडौसी के घर में रंगीन रोशनी दिख जाती हैं

वैसे जलने को तो अपनी लालटेन भी जल जाती हैं
पर उसकी रोशनी चाँद के आगे फीकी पड़ जाती हैं

पर क्या करे गिला हम चाँद के चमकने की भी
रात अमावस की उसके नसीब में भी तो आती हैं

ये बात नसीबो की अपनी समझ में नहीं आती हैं
खुद की कमियाँ बड़ी आसानी से इस लफ्ज़ में छिपाई जाती हैं

सुबह होते ही अक्सर ‘ठाकुर’ तुम्हारी आँख लग जाती हैं
वरना एक उजली किरण तो तुम्हारे नसीब में भी आती हैं

 

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