शुक्रवार


सोमवार तो नीरस हैं, निर्जीव जैसे पतझड़ में आबरू खोया पलाश का पेड़ ।
मंगलवार भी बंजर जमीन जैसा उबड़-खाबड़ और पथरीला ।
बुधवार जैसे बाजरे की रोटी और प्याज, स्वास्थ्य के लिए गुणवान पर बेस्वाद और बैरंग ।
गुरुवार जैसे दोपहर का ढलना और शाम की दस्तक, चार बजे की चाय ।
और शुक्रवार जैसे बाइस साल का नौजवान, आकर्षक और ऊर्जा से भरपूर ।

शुक्रवार होने की कभी इतनी खुशी कभी नही हुई जितनी नौकरी शुरू करने के बाद हुई । सप्ताह के पूरे पाँच दिन पाँच पांडवो की तरह महाभारत का युद्ध लड़ने के बाद श्री कृष्ण की बनाई माया-मोह से भरी इस दुनिया मे दो दिन की छुट्टी मिलती हैं । पर असली महिमा इन दो दिन की नही हैं, बल्कि उस शुक्रवार की हैं जो इन दो दिनों को लेकर आता हैं, जैसे मानसून के आगमन का रोमांच भरती पहली बारीश, रेलगाड़ी के स्टेशन पहुचने से पहले प्लेटफॉर्म की चहलकदमी ।

शुक्रवार होना भी खुशकिस्मती हैं, सुबह ये अहसास कि शुक्रवार आ गया, शाम को ये रोमांच की अगले दिन छुट्टी हैं, और इन दोनों के बीच दिन भर ये शुक्र कि आज शुक्रवार हैं । शुक्रवार की नीयत भी साफ हैं, कोई अनिर्णय की स्थिति नही हैं, जो कार्य संध्या तक पूर्ण हो सकते हैं उन्हें पूर्ण ऊर्जा से शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण किया जाता हैं और जो दिन भर में पूरे नही किये जा सकते उन्हें अगले सप्ताह पर छोड़ दिया जाता हैं, कोई कंफ्यूसन नही । किसी भी कार्य को पूर्ण करने की जो ऊर्जा शुक्रवार की दोपहर में होती हैं,और किसी दिन में नही । शुक्रवार की शाम तो जैसे आम का बाग हैं, महक और स्वाद से भरपूर । दोस्तो को सुबह से ही शाम के आयोजन की सूचना दे दी जाती हैं और मस्ती की पूरी लिस्ट बना ली जाती हैं । रात को घर पहुँचो तो घरवालो को भी ये इत्मिनान रहता हैं कि अब दो दिन ये सौतन नौकरी के पास नही जायेगे । सभी का शुक्रवार को प्रोग्राम फिक्स होता हैं, कोई शाम को जल्दी से ट्रेन या बस पकड़ता हैं, कोई फ़िल्म की टिकिट बुक करता हैं तो कोई घरवालो को कही घुमाने ले जाता हैं । जुम्मे चुम्मे के गीत से मशहूर इस वार के सामने तो इतवार भी कुछ नही जो संध्या में ये सोग दे जाता हैं कि अब अगला दिन सोमवार हैं ।

कहते हैं शुक्रवार को खटाई नही खाते, अच्छा नही माना जाता । खटाई खाये या ना खाये पर शुक्रवार को किसी को काम नही बताते क्योंकि ये ब्रह्महत्या से भी बड़ा पाप माना गया हैं । शुक्रवार को वही कार्य किये जाते हैं जिन्हें इसी सप्ताह समाप्त करना होता हैं अन्यथा अगला सप्ताह तो हैं ही । किसी जमाने मे फिल्मे गुरूवार को रिलीस होती थी पर जब से फाइव डे वर्किंग कल्चर आया हैं, फ़िल्म वालो को भी शुक्रवार की महत्ता पता चली और फिल्मे शुक्रवार को रिलीस करने की परंपरा शुरू हुई । शुक्रवार की सुबह वैसे स्टूडेंट्स के लिए भी बहुत खास होती हैं, शनिवार-रविवार की भीड़ और महंगे टिकिट से बचने के लिए वो शुक्रवार सुबह ही मूवी का फर्स्ट डे फर्स्ट शो देख आते हैं। इसीलिए शुक्रवार को कॉलेज में अटेंडेंस भी कम ही होती हैं।

वैसे शुक्रवार होने की भी कुछ मर्यादा हैं, जैसे वो कभी रविवार की तरह अकर्मण्य और आलसी नही हो सकता, वो कभी सोमवार की तरह नीरस भी नही बन सकता । शुक्रवार को तो कर्म भी पूर्ण तन्मयता से होता हैं, और आनंद-उल्लास भी दिल खोलकर मनाया जाता हैं, मन को मारकर तो कोई काम किया ही नही जाता । कर्म और आनंद के फूलों को एक माला में पिरोकर जीवन को खूबसूरत बनाता ये दिन वाकई में गज़ब का होता हैं ।

**लेखक – अंकित सोलंकी, उज्जैन (मप्र)**

2 responses to “शुक्रवार”

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