वेद-पुराण में तीन देवताओ का वर्णन विशेष रूप से मिलता हैं, जो इस पुरे ब्रह्माणं की कार्य प्रणाली को संचालित करते हैं, ये देवता हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा इस सम्पूर्ण ब्रह्माणं के रचियता हैं, विष्णु इस सृष्टि के संचालक या पालनहार हैं और महेश सृष्टि के रक्षक और संहारक है। यहाँ यह बात ध्यान रखना चाहिए कि संसार में जो भी उत्पन्न हुआ हैं वो कभी न कभी नष्ट भी होगा, इसलिए संहारक की भूमिका को नकारात्मक रूप में नहीं देखना चाहिए।
देखा जाये तो सृष्टि की रचना से लेकर जितने भी कार्य हैं, वो इन तीन देवताओ में ही विभाजित हैं, पर इन कार्यो को करने के लिए जिस विशिष्ट गुण की आवश्यकता हैं उनके प्रतीक ये देवता नहीं हैं। सृष्टि की रचना के लिए बुद्धि और ज्ञान की आवश्यकता होती हैं और इसलिए स्वयं ज्ञान और कौशल की देवी सरस्वती ब्रह्माजी के साथ विराजमान हैं। किसी भी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए संसाधन की आवश्यकता होती हैं, और इसीलिए सृष्टि के संचालक श्री हरी विष्णु जी साथ स्वयं धन-धान्य और सभी प्रकार के संसाधन की देवी लक्ष्मीजी विराजमान हैं। रक्षा हो या संहार, ये कार्य बिना शक्ति, साहस और सामर्थ्य के नहीं किये जा सकते हैं, शायद इसीलिए स्वयं आदिशक्ति माँ पार्वती भोलेनाथ के साथ विराजमान हैं।
तीनो लोको के स्वामी सर्वशक्तिमान भोलेनाथ को जीवन में आदिशक्ति की आवश्यकता क्यों हैं, चतुर-स्मार्ट श्री हरी विष्णु को माता लक्ष्मी का साथ क्यों चाहिए ? मैं नहीं जानता ऐसा क्यों हैं, जिस सर्वशक्तिमान ईश्वर की छवि वेद-पुराण ब्रम्हा-विष्णु-महेश के रूप में गढ़ते हैं, उनके साथ इन गुणों के लिए देवियो को क्यों विराजा गया। क्या ये त्रिदेव इन गुणों या कौशल से परिपूर्ण नहीं हैं? शायद सनातन धर्म ये बताना चाहता था कि पुरूष कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो, वो कोई भी कार्य बिना महिला के नहीं कर सकता हैं। संसार के सभी प्राणियों को इन गुणों को प्राप्त करने के लिए स्त्री की आवश्यकता होगी। विश्व में शायद ही ऐसा कोई धर्म होगा जिसने स्त्री की महत्ता इतने रचनात्मक रूप में सिखाई होगी, शायद ही ऐसा धर्म होगा जिसने ईश्वर को अकेला नहीं वरन पुरुष और महिला के संयोजन में दिखाया।
स्त्रीयो को उपभोग या शारीरिक सुंदरता के मापदंड पर तौलने वाले समाज को शायद ये जानकार आश्चर्य होगा कि वेद-पुराण में देवियो का वर्णन अपने विशिष्ट गुणों से ही होता हैं। देवियो के रंग-रूप पर टिप्पणी भी उनके कर्म और गुणों के आधार पर ही की गई हैं। देवी लक्ष्मी धन-धान्य और सुख-सम्पदा को दर्शाती हैं, स्वाभाविक सी बात हैं जो सुख-संपन्न और संसाधन से परिपूर्ण होगा वो सुन्दर ही होगा, इसीलिए लक्ष्मीजी को हमेशा गौरांगी और सुन्दर बताया गया हैं। सरस्वती ज्ञान और बुद्धि की देवी हैं और जो ज्ञान-बुद्धि से परिपूर्ण होगा वो ओजस्वी होगा, इसीलिए सरस्वतीजी का वर्णन ओजस्वी, शांत-चित्त और सौम्य रूप में किया गया हैं। माँ काली शक्ति का प्रतीक हैं, इस संसार की राक्षसों से रक्षा करती हैं। जो साहसी होगा, युद्ध भूमि में रहेगा और निरंतर शारीरिक कार्य करेगा, उसका रंग सावला ही होगा, इसीलिए माँ काली का रंग-रूप काला या नीला बताया गया हैं और उनका स्वरुप भयानक बताया गया हैं।
नवरात्र का ये उत्सव की कल्पना इसलिए की गई कि ये समाज स्त्री की महत्ता समझे। शारीरिक रंगरूप, काम-लोभ के स्थान पर शक्ति-ज्ञान और संसाधन की आराधना करे। नवरात्र का ये पर्व जीवन का सन्देश हैं कि जब तक प्राणियों में शक्ति-ज्ञान और संसाधन के प्रति आस्था का भाव हैं, तब तक ही जीवन संभव हैं। और इन्हे प्राप्त करने के लिए भक्ति-भाव से माँ के चरणों में नतमस्तक होकर आराधना करनी ही होगी।
जय माता दी