खुदा खैर रखना सबकी
कि रुत चल रही हैं ग़म की
शिकवे-शिकायत हम बाद में देख लेंगे
अभी तो जरूरत हैं बस तेरे रहम की
खतावार मैं हूँ तो सजा भी हो सिर्फ मेरी
ना काटे कोई क़ैद मेरे करम की
आरजू हैं अमन कायम रहे मुल्क में
मुस्कुराती रहे हर कली मेरे चमन की
एक तू ही तो हैं हर दीन-दुखी का सहारा
तू हैं तो क्या जरूरत किसी दूजे सनम की
खुदा खैर रखना सबकी
कि रुत चल रही हैं ग़म की
— अंकित सोलंकी , उज्जैन (मप्र) (मौलिक एवं स्वलिखित)
