घडीबंद बाँहों में गलबाहियां मचलती हैं
की अब हर तरफ बस शहनाईयां बजती हैं
बहुत सुना चुके हैं ये बाग हमें बाँसुरी
कि हर शाख से अब शहनाईयां ही बजती हैं
क्या फरक पड़ता हैं खाये हम तीखा या नमकीन
जुबाँ से तो शहद भरी शहनाईयां बजती हैं
लो बुला लो कुछ ढोल और नगाडो वालो को भी
वरना दिन-रात तो बस यहाँ शहनाईयां ही बजती हैं
जाने कहा खो गए हैं ये टिक-टिक करते समय के भी बोल
कि अब हर घडी में भी बस शहनाईयां ही बजती हैं
“ठाकुर” अपने अल्फाजो को थोडा गुनगुना भी लीजिये
क्योकि गज़लों में भी तुम्हारी अब शहनाईयां बजती हैं
One response to “शहनाईयां”
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बहुत खूब अंकित भाई अच्छा लिखते हो!
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